हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है
शीर्षक पढ़कर चौंकिए बिलकुल मत। मै आज आपसे ये फिल्मी गीत गाने या सुनने के लिए बिल्कुल कहने वाला नहीं हूँ । ये गीत तो मुझे बरबस याद आ गया जब मैंने सुना/पढ़ा कि देश के मुख्य न्यायाधीश ने 'मार्निग वाक् ' यानि सुबह की सैर करना बंद कर दी है ,क्योंकि दिल्ली की हवा अब जानलेवा हो चुकी है। मुझे जिस देश में गंगा बहती है गीत लिखने वाले कवि शैलेन्द्र की किस्मत पर गर्व है कि वे ये गीत लिखते समय आज हमारे साथ नहीं हैं,अन्यथा आज यदि यही गीत उन्हें लिखने को कहा जाता तो मुमकिन है कि वे कुछ और लिखते।
बात दिल्ली की आवो-हवा की है लेकिन मुझे तो पूरे देश की आवो-हवा में जहर घुला महसूस होता है। पहले ये हवा कम से कम सांस लेने लायक तो थी ,लेकिन अब दो ये दमघोंटू हो गयी है। मुख्य न्यायाधीश क्या खुद भगवान भी दिल्ली और देश की आवो-हवा में सांस नहीं ले सकते। हमारे यहां खासकर दिल्ली में प्रदूषण हवा का भी है और सियासी हवा का भी। इस प्रदूषण के लिए जिम्मेवार लोग भी हमारे अपने हैं इसलिए उनके खिलाफ न हम कुछ कर सकते हैं और न मुख्य न्यायाधीश। हमारे पास एक ही विकल्प है कि हम अपने घर में खुद को नजरबंद कर लें।
कुछ साल पहले मैं चीन गया था । वहां मैंने शंघाई और बीजिंग में भी कमोवेश यही हालात देखे थे जो आज हमारे देश की राजधानी दिल्ली में आज हैं। सीजेआई या दूसरे लोग तो अपने आपको अपने बंगलों में नजरबंद कर प्रदूषण से बच सकते हैं किन्तु वो आम आदमी कैसे अपना बचाव कर सकता है जो खुद दड़बेनुमा फ्लैटों या झुग्गियों में रहता है ? उसके पास तो रोज कुआ खोदने और रोज पानी पीने की मजबूरी है। उसकी जान तो उसकी हथेली पर रखी हुई। उसे हथेली लगाने वाला कौन है ? दिल्ली और देश की आवो-हवा खराब करने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत न विधायका के पास है न कार्यपालिका के पास और अब तो न्यायपालिका भी हथियार डाले हुए दिखाई दे रही है। सबके सब श्टुतमुर्ग़ी मुद्रा में हैं। इससे जाहिर है की हमारे देश में इंसान की जिंदगी किसी कीड़े-मकोड़े की जिंदगी से ज्यादा अहम नहीं है।
चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ किस्मत वाले हैं। उन्होंने अनौपचारिक बातचीत में पत्रकारों से कहा कि दिल्ली में प्रदूषण के बढ़ते स्तर के चलते उन्होंने मॉर्निंग वॉक पर जाना बंद कर दिया है। सीजेआई ने ये फैसला उनके डॉक्टर की सलाह के बाद किया है। आम आदमी को तो डाक्टर की सलाह भी मयस्सर नहीं है। आपको पता ही होगा कि दिल्ली का औसत एक्यूआई 340 पहुंच गया। सामान्य स्थिति में यह 50 के आसपास रहता है। 50 से ज्यादा एक्यूआई वाली हवा सेहत के लिए नुकसानदेह होती है। 300 एक्यूआई वाली हवा बेहद खतरनाक होती है। इससे लोगों को गंभीर बीमारियां हो सकती हैं।
जानलेवा आवो-हवा की वजह से दिल्ली के अस्पतालों में श्वास संबंधी मामलों में 30 से 40 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। श्वास रोग विशेषज्ञों ने कहा कि बच्चे और बुजुर्ग प्रदूषण के दुष्प्रभावों के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं। उन्होंने लोगों को घर से बाहर नहीं निकलने और धूल के संपर्क में आने से बचने की सलाह दी। दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) पिछले एक हफ्ते से अधिक समय से ‘खराब’ श्रेणी में है। लेकिन कोई राजनीतिक दल,कोई सत्ता आम जनता को शुद्ध हवा मुहैया करने की गारंटी लेने या देने को राजीनहीं है। आप ने देखा ही होगा की दिल्ली में यमुना फसूकर डाल रही है।
आप ये जानकर शायद चौंके कि भारत के दस सबसे बड़े शहरों में सात फीसदी मौतों के लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार है। एक विस्तृत रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में दसियों हजारों लोगों की जानें बचाने के लिए फौरन कदम उठाए जाने की जरूरत है । बड़े पैमाने पर हुए शोध के बाद वैज्ञानिकों ने कहा है कि दिल्ली समेत तमाम बड़े शहरों की जहरीली हवा लोगों के फेफड़ों को बुरी तरह प्रभावित कर रही है और आने वाले समय में स्वास्थ्य के लिए यह और बड़ा खतरा बन सकता है। देश कि अनेक संवेदनशील भारतीय वैज्ञानिकों के साथ मिलकर किए गए इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अहमदाबाद, बेंगलुरू, चेन्नई, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, मुंबई, पुणे, शिमला और वाराणसी में पीएम 2.5 माइक्रोपार्टिकल के स्तर का अध्ययन किया. यह पार्टिकल कैंसर के लिए जिम्मेदार माना गया है।
चर्चित लांसेट प्लेनेटरी हेल्थ' पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक 2008 से 2019 के बीच कम से कम 33 हजार लोगों की जान इसी पीएम 2.5 पार्टिकल के कारण गई। यह इस अवधि में इन दस शहरों में हुईं कुल मौतों का 7.2 फीसदी है. वैज्ञानिकों ने इन शहरों में हुईं लगभग 36 लाख मौतों का विश्लेषण किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पीएम 2.5 पार्टिकल का प्रति घन मीटर 15 माइक्रोग्राम से ज्यादा का स्तर सेहत के लिए खतरनाक है. लेकिन भारत में यह स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रखा गया है जो डब्ल्यूएचओ की सिफारिश से चार गुना है। लेकिन भारत सरकार हो या दिल्ली सरकार या पंजाब या हरियाणा सरकार ,सबके सब बेफिक्र हैं। उन्हें तो सिर्फ वोट चाहिए और सत्ता भी।
इस खतरनाक मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल या तो मौन हैं या फिर एक दूसरे के ऊपर आरोप -प्रत्यारोप लगाने में मशगूल है। समस्या का हल खोजने में किसी की दिलचस्पी नहीं है । सभी की दिलचस्पी चुनावों में है । गठबंधन करने में है। सीटें बांटने में है। जबकि मौतों के मामले में सबसे ज्यादा खतरनाक दिल्ली हो चुकी है यहां सालाना लगभग 12 हजार यानी 11.5 फीसदी लोगों की जान वायु प्रदूषण के कारण हुई। हम इस बात पर गर्व करें या शर्म की हमारी प्यारी दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है। वैसे भी भारत को पिछले साल दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में से एक आंका गया था.
प्रदूषण के कारण पूरे देश में लोग मर रहे हैं।अहमदाबाद में 2,495, बेंगलुरू में 2,102, चेन्नई में 2,870, दिल्ली में 11,964, हैदराबाद में 1,597, कोलकाता में 4,678, मुंबई में 5,091, पुणे में 1,367, शिमला में 59 और वाराणसी में 831 लोगों की जान गयी । ग्वालियर जैसे मझोले शहर में प्रदूषण जानलेवा है लेकिन यहां ' महारजियत ' जिंदाबाद है। शहर की आवो-हवा को सुधारने की वजाय यहां के भाग्यविधाता भारतीय गणराज्य में 78 साल पहले विलीन हो चुके सिंधिया स्टेट के राजवंश के चिन्हों से शहर को चमकाने में लगे हुए हैं। फिर भी बकौल शैलेन्द्र हम गाते नहीं थकते की -
होठों पे सच्चाई रहती है,
जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है,
हम उस देश के वासी हैं,
जिस देश में गंगा बहती है।।
हमारे देश में गंगा जरूर बाह रही है लेकिन उसका जल यानि गंगाजल भी जानलेवा है। गंगा अपने जीवन के लिए खुद संघर्ष कर रही है और गंगापुत्र को कुछ दिखाई या सुनाई नहीं दे रहा। हमारे भाग्यविधाता जनता की मानसिकता से वाकिफ ai। उन्हें पता ही की हमारे देश की जनता तो अलग ही स्वभाव की है। वो गाते हुए नहीं थकती की-
मेहमां जो हमारा होता है,
वो जान से प्यारा होता है,
ज़्यादा की नहीं लालच हमको,
थोड़े में गुज़ारा होता है ।।
कवि शैलेन्द्र ने इंसान को पहचानने में पूरब वालों पर तंज कैसा था लेकिन उन्होंने भी माना था की पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ,लेकिन पश्चिम वालों के लिए जान की कोई कीमत है ही नहीं। किसी की जान यदि यहां १० हजार रूपये है तो किसी की १० लाख रूपय। कोई किस्मत वाला है तो उसके परिजनों को उसकी जान की कीमत एक करोड़ रूपये भी मिल सकती है ,लेकिन ' जान की अमान ' कोई नहीं दे सकता। अब गेंद न सरकार के पीला में है और न अदलात के पाले मे। अब गेंद जनता के पीला में ह। जनता को खुद ही प्रदूषण के दैत्य के खिलाफ खड़ा होना होग। जो प्रदूषण फ़ैलाने वाले हैं उनकी गर्दन पकड़ना होगी अन्यथा शौक से मरिये ,क्योंकि हम जिस देश के वासी हैं ,उस देश में गंगा तो बह ही रही है।
@ राकेश अचल